१९ मार्च, ११५८

 

 ''इसके बाद, यह भी माना जा सकता है कि शरीरमें चेतना और सत्ताके प्रत्येक प्ररूप या प्रतिमानको, एक बार स्थापित हो जाने- के बाद, उस प्ररूपके धर्मके प्रति, अपनी प्रकृतिके उद्देश्य और नियम (स्वभाव) के प्रति निष्ठावान् रहना होगा । परंतु यह भी भली भांति हो सकता है कि अपने परे जानेके प्रति आवेग मानव प्ररूपके विधानका एक भाग हो और मनुष्यकी आध्यात्मिक शक्तियोंमें सचेतन संक्रमणका साधन भी दिया गया हो;

 

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मनुष्यमें ऐसी सामर्थ्यका होना उस योजनाका अंग हो सकता है जिसके अनुसार सर्जन करनेवाली 'ऊर्जा'ने उसका निर्माण किया है । यह स्वीकार किया जा सकता है कि मनुष्यने अभीतक मुख्यतया जो कुछ किया है वह अपनी प्रकृतिके घेरेके भीतर, प्रकृतिकी कभी नीचे उतरती और कभी ऊपर उठती सर्पिल गतिमें किया है; उसने सीधी रेखामें प्रगति नहीं की, अपनी अतीत-कालीन प्रकृतिसे कोई निर्विवाद, मूलभूत या आमूल अति- क्रमण नहीं किया है । उसने केवल अपनी सामथ्योंको तीक्ष्ण और सूक्ष्म बनाया है और उनका अधिकाधिक जटिल और लचीला उपयोग किया है । यह कहना भी सत्य नहीं होगा कि जबसे मनुष्य प्रकट हुआ है त्बसे अथवा उसके अर्वाचीन और निश्चित हो सकनेवाली इतिहास-कालमें मानव-प्रगति जैसी कोई वस्तु नहीं हुई; कारण, प्राचीन कालके मनुष्य चाहे जितने महान् क्यों न हों, उनकी उपलब्धियां और रचनाएं चाहे जितनी उत्कृष्ट क्यों न हों, उनकी आध्यात्मिकताकी, बुद्धि या चरित्रकी शक्तियां चाहे जितनी प्रभावशाली क्यों न हों, फिर भी, पीछेके विकास-युगोंमें मनुष्यकी उपलब्धियोंमें, उसकी राजनीति, उसके समाज, जीवन, विज्ञान, तत्त्वज्ञान, कला, साहित्य और हर प्रकार- के ज्ञानमें सूक्ष्मता एवं जटिलताकी अधिकाधिक वृद्धि हुई है, उन- मे ज्ञान और संभावनाका बहुविध विकास हुआ है; यहांतक कि उसके आध्यात्मिक प्रयासमें भी, -- यद्यपि बह आध्यात्मिकताकी शक्तिमें प्राचीनोंकी शक्तिसे कम आश्चर्यजनक रूपसे ऊंचा और कम विशाल रहा है, -- यह बढ्ती हुई सूक्ष्मता, नमनशीलता, गहराइयोंकी थाह और खोजका विस्तार रहे हैं । उच्च प्रकार- की संस्कृतिसे पतन हुए है, एक विशेष प्रकारके रूढ़िवादमें तीक्ष्ण किन्तु कुछ समयके लिये उतार आया है, आध्यात्मिक प्रेरणा बन्द हुई है, प्रकृतिके बर्बर जड़वादमें डुबकियां लगी हैं; किन्तु यह सब सामयिक घटनाएं हैं, अपने निकृष्टतम रूपमें प्रगतिके सर्पिल चक्रका नीचेकी ओर घुमाव है । निः सन्देह, यह प्रगति मानव जातिको अपनेसे परे, मनोमयी सत्ताके अतिक्रमणमें, रूपान्तरमेंसे नहीं ले गयी है । परन्तु इसकी आशा भी नहीं की जा सकती थी; कारण, सत्ता एवं चेतनाके प्ररूपमें वैकासिकी प्रकृतिकी क्रिया पहले उस प्ररूपको ठीक ऐसे सूक्ष्म और बढ्ती हुई जटिलताके द्वारा उसकी अधिकतम सामर्थ्यतक,

 

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उस समयतक बढ़ाते जाना है जबतक कि वह (प्ररूप) इसके लिये तैयार नहीं हो जाता कि प्रकृति उसके खोलको तोडकर उसे बाहर निकाल दे, वह परिपक्व निर्णायक आविर्भावके लिये, चेतनाके प्रत्यावर्तन, चेतनाके अपनी ओर अभिमुखी होनेके लिये तैयार न हो जाय; यह विकासमें एक नयी भूमिका है । यदि यह मान लिया जाय कि प्रकृतिका अगला कदम है आध्यात्मिक और अतिमानस प्राणी तो मानव जातिमें जो आध्यात्मिकताके प्रति खिंचाव हैं उसे इस बातका संकेत माना जा सकता है कि यह प्रकृतिका अभिप्राय है; यह इस बातका भी चिह्न है कि मनुष्यमें यह सामर्थ्य है कि वह अपनेमें उस संक्रमण- को ला सके अथवा उसके लानेमें प्रकृतिको सहायता दे सके । यदि मानव विकासकी प्रक्रिया यह थी कि पाशवी सत्तामें एक ऐसे प्ररूपका आविर्भाव हो जो कुछ अंशोंमें वानर जातिके सदृश था किन्तु पहले ही से मानवताके तत्त्वोंसे युक्त था, तो मानव सत्तामें ऐसे आध्यात्मिक प्ररूपका आविर्भाव, जो हो तो मनोमय पशु-भावमय मानवताके जैसा, पर उसपर पहलेसे ही आध्यात्मिक अभीप्साकी छाप लगी हो, आध्यात्मिक और अतिमानस सत्ता (प्राणी )के वैकासिक उत्पादनके लिये प्रकृतिकी स्पष्ट प्रक्रिया होगी ।'''

 

('लाइफ डिवाइन', पृ ० ८४१-४२)

 

 एक चीज बहुत स्पष्ट मालूम होती है, मानवजात इतनी अधिक अति- क्रियाशीलता और व्यापक संत्रासके कारण आम तनाव -- प्रयासमें तनाव, कर्ममें तनाव, यहांतक कि दैनिक जीवनमें तनाव -- की एक खास अवस्था- तक आ पहुंची है कि लगता है मानों पूरा मानव-समूह उस बिन्दुपर आ गया है जहां या तो यह प्रतिरोधसे टूट-फट जाय और एक नयी चेतनामें उमर आये या फिरसे अंधकार और तमस्की खाईमें जा गिरे ।

 

            यह तनाव इतना पूर्ण और व्यापक है कि, स्पष्ट ही, कहीं कुछ-न-कुछ तोड़ना ही पड़ेगा । यह इसी तरह चलता नहीं रह सकता । इसे जड़- पदार्थमें बल, चेतना और शक्तिके नये तत्व अवमिश्रणका निश्चित संकेत माना जा सकता है जो अपने दबावसे ही यह विकट स्थिति उत्पन्न कर रहा है । उन्हीं पुराने साधनोंकी आशा बाहरी तौरपर की जा सकती है जिनका उपयोग प्रकृति उथल-पुथल मचानेके लिये किया करती है; लेकिन एक नया गुण है जिसे सिर्फ श्रेष्ठ वर्गमें ही देखा जा सकता है, पर यह

 

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श्रेष्ठवर्गमें भी काफी फैला हुआ है -- एक ही बिन्दुपर, दुनियामें एक ही जगहपर केंद्रित नहीं है । दुनियामें सब जगह, सब देशोंमें इसकी विद्यमानताके संकेत मिलते हैं : नया, उच्चतर, उत्तरोत्तर प्रगतिशील समाधान पानेकी प्रबल इच्छा, एक विशालतर, अधिक सर्वतोमुखी पूर्णताकी ओर उठनेका प्रयल ।

 

       अमुक अधिक सामान्य, अधिक व्यापक और शायद अधिक समूहगत विचार मी विकसित हा रहे हैं और जगत्में काम कर रहे है । दा चीजों एक हों रही है : एक अधिक विशाल और अधिक समूचे विनाशकी संभावना, अनर्थकी संभावनाको बेतहाशा बढ़ाता हुआ एक आविष्कार, ऐसा महा विध्वंस जैसा पहले कमी नहीं हुआ; दूसरी ओर, साथ-ही-साथ एक कहीं अधिक उच्च और व्यापक विचारों और संकल्पके प्रयासोंका जन्म, बल्कि आविर्भाव जिनकी सुनायी होनेपर वे अपने साथ पहलेसे अधिक विस्तृत, अधिक विशाल, अधिक सर्वांग और अधिक पूर्ण उपचार लायेंगे ।

 

         अधिकाधिक दिव्य उपलब्धिकी, ऊपर चढ़ते हुए विकासकी, रचनात्मक शक्तियों और अधिकाधिक विनाशकारी, सशक्त रूपसे विध्वंसकारी, एकदमसे बेलगाम, पागल शक्तियोंके बीच संघर्ष और विरोध कही अधिक प्रत्यक्ष और स्पष्ट सबमें दिखायी देता है, यह एक तरहकी दौड या प्रतियोगिता है कि देखें, लक्ष्यतक पहले कौन पहुंचे । ऐसा लगता है कि विरोधी, भगवद्-विरोधी शक्तियां, प्राण जगत्की शक्तियां धरापर उत्तर आयी है, और इसे अपनी कर्म-भूमि बना रही है, साथ-ही-साथ इसपर एक नया जीवन लानेके लिये एक नयी, उच्चतर, अधिक बलशाली आध्यात्मिक शक्ति मी धरापर उतरी है । इससे संघर्ष विकटतर, उग्रतर ओर अधिक दृष्टिगोचर हों उठता है, लेकिन साथ ही अधिक निर्णयात्मक भी लगता है । इसीलिये शील ही समाधान पा जानेकी आशा की जा सकती है ।

 

             एक समय था, बहुत पहलेकी बात नहीं, जब मनुष्यकी आध्यात्मिक अभीप्सा दुनियाकी सब चीजोंसे निर्लिप्त जीवनसे पलायन या ठीक-ठीक कहें तो युद्धसे कतरानेके लिये, संघर्षसे ऊपर उठनेके लिये., सारे प्रयाससे बचनेके लिये नीरव, निष्क्रिय शान्तिकी ओर मुड़ी हुई थी । यह एक आध्यात्मिक शान्ति थी जिसमें सब तनाव, संघर्ष और प्रयासोंकी समाप्तिके साथ-साथ सब तरहके दुःख-कष्ट भी समाप्त हो जाते थे और आध्यात्मिक एवं दिव्य जीवनके लिये इसे ही एकमात्र सच्ची अभिव्यक्ति माना जाता था । इसे ही भागवत कृपा, भागवत सहायता, भागवत हस्तक्षेप समझा जाता था । और अब मी, वेदना, तनाव, अति तनावके इस युगमें भी, सब सहायताओंमें यह परम शान्ति ही सबसे अच्छी तरह ग्रहण की जाती है और स्वागत पाती है । यही वह सुरव है जिसकी मांग की जाती

 

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 है, जिसकी आशा की जाती है, अभीतक अनेकोंके लिये यही भागवत हस्तक्षेप और भागवत कृपाका सच्चा संकेत है ।

 

वास्तवमें, व्यक्ति चाहें कुछ भी पाना चाहे, उसे आरंभ इस पूर्ण और निर्विकार शान्तिकी स्थापनासे ही करना चाहिये, यही वह आधार है जिस- पर मनुष्यको काम करना है, लेकिन यदि कोई ऐकान्तिक, निजी, अहंजन्य मुक्तिके ही सपने न लेता हो तो वह इसीसे सन्तुष्ट नहीं हो सकता । भाग- वत कृपाका एक दूसरा पहलू भी है - प्रगतिका पहलू, जो सब बाधाओं- पर विजयी होगा, वह पहल जो मानव जातिको नयी उपलठिंधकी ओर आगे बढ़ायेगा, एक नयी दुनियाके द्वार खोल देगा और केवल इने-गिने लोंगोंके लिये ही इस दिव्य उपलब्धिसे लाभ उठाना संभव न बनायेगा, वरन् उनके प्रभाव, दृष्टांत और बलद्वारा शेष मानव जातिके लिये भी एक नयी और अधिक अच्छी अवस्था संभव कर देगा ।

 

          यह भविष्यमें उपलब्धिके मार्गको, उन संभावनाओंको, जो पहले देखी जा चुकी है, खोल देती है, जब मानव जातिका एक पूरा भाग, वह समूचा मांग जो नयी शक्तियोंकी और सचेतन या अचेतन रूपसे खुल गया है, एक उच्चतर, अधिक सामंजस्यमय, पूर्णतर जीवनकी ओर उठाया जायगा... । र्याद व्यक्तिगत रूपान्तर सदा अनुज्ञेय या संभव न हो, तो समूहका एक तरहका उन्नयन, सच्चा सामंजस्य होगा जो नयी व्यवस्था और नये सामंजस्यकी स्थापनाको संभव बना देगा, और अव्यवस्थाकी यातनाओं और वर्तमान संघर्षोको दूर करके उनकी जगह समष्टिके सामंजस्यमय कार्यके लिये व्यवस्था ला देगा ।

 

        जीवनमें मनके हस्तक्षेपसे जो विकार, कुरूपता, और विकृतियोंका पुंज आया है, जिन्होंने दुःख-कष्ट, नैतिक दारिद्र्य एवं कुत्सित और घृणित दुःखोंके पूरे प्रदेशको बढ़ा दिया है, जिसने मनुष्य जीवनके एक पूरे भागको एसा भयावह बना दिया है, उस सारेको अन्य विपरीत साधनोंद्वारा दूर करनेके लिये अन्य परिणाम प्रवृत्त होंगे । सचमुच, उसे दूर होना ही चाहिये । यही वह चीज है जो कई बातोंमें मानव जातिको पशु-जीवनकी सरलता और सब कुछके बावजूद नैसर्गिक सहजता और सामंजस्यकी तुलनामें अनन्तगुना बदतर बनाती है । पशुओंका दुःख-कष्ट कभी मी इतना दयनीय व कुत्सित नहीं होता जितना कि मानव जातिके एक पूरे भागमें जो एकमात्र अ-हंम्लक आवश्यकताओंके काममें लगी मनोवृत्तिद्वारा विकृत हो गया है ।

 

          हमें या तो ऊपर उठना होगा, 'ज्योति' और 'सांमजस्यें छलांग लगानी होगी, या स्वस्थ और अविकृत पशु-जीवनकी सरलतामें वापिस जा गिरना होगा।

 

*

 

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१९५८ मे, इस वार्तालापके प्रथम प्रकाशनके

समय श्रीमांने नयी शक्तियोंके प्रभावसे

मानव जातिके एक पूरे भागके ''उत्रयन'' के

बारेमें निम्न अंश जोड़ा :

 

 लेकिन जो ऊपर नहीं उठाये जा सकते, जो प्रगति करनेसे इनकार करते है, वे अपने-आप ही मानसिक चेतनाकी क्रिया खो बैठेगे और फिरसे मानवसे निम्नतर स्तरपर उतर आयेंगे ।

 

         मैं तुम्हें अपनी एक अनुभूति सुनाती हू जो तुम्हें, इसे ठीक तरह समझने- मैं सहायता देगी । यह अनुभूति ३ फरवरीकी अतिमानसिक अनुभूतिके कुछ समय बाद हुई थी ओर मैं तब भी उस अवस्थामें थी जब पार्थिव जगत्की चीजों बहुत दूर और बेतुकी मालूम होती थीं । एक दर्शनार्थी दलने मुझसे मेरे पास आनेकी अनुमति मांगी थी और एक शाम वे रवेलके मैदानमें आये । वे धनी थे, यानी, उनके पास जीवन-निर्वाहके लिये जितना चाहिये उससे ज्यादा धन था । उनमें एक महिला थी जो साड़ी पहने थी, वह बड़ी रथुलकाय थी, उसने साड़ी इस तरह लपेट रखी थी कि सारा शरीर छिपा रह सकें । जब उसने मेरा आशीर्वाद पानेके त्ल्यिए झुकना चाहा तो साडीका एक पल्ला खिसक गया और शरीरका एक अंग खुल गया, एक नंगा पेट - एक दीर्घाकार पेट । मुझे काफी धक्का लगा... । ऐसे स्थूलकाय लोग होते हैं जिनमें कुछ घृणास्पद नहीं होता, पर इसमें मैंने सहसा विकृति, और सडांध देखी जिसे वह पेट अपनेमें छिपाये था, वह एक विशाल फोड़े-जैसा था जो लोभ, पाप, कुत्सित रुचि और ओछे चाहको प्रकट करता था, जो घटियापनमें, और सबसे बन्दकर, विकृतिमें ऐसी तृप्ति पाता था जैसी कोई जानवर भी नहीं चाहेगा । मैंने क्षुद्रतम बुभुक्षा- की सेवामें रत पतित, कुत्सित मनकी विकृतिको देखा । तब एकाएक मेरे अन्दरसे एक वैदिक प्रार्थना-सी फूट पडी : ''हे प्रभु, यही है वह जिसे मिटना चाहिये ।''

 

        हम अच्छी तरह समझते है कि भौतिक दुख-दैन्यको, इस दुनियाकी संपत्तियोंके विषम वितरणको बदला जा सकता है, हम आर्थिक और सामाजिक हलकी कल्पना करते है जो इसका उपचार कर सकती है, लेकिन बह दूसरी दुर्दशा, मानसिक दुर्दशा, प्राणिक विकृति नही बदली जा सकती । वह बदलना नहीं चाहती । और जो लोग मानवताके इस वर्गमें आते है ३ पहलेसे ही विघटनके लिये दंडित है ।

 

     आदि-पापका अर्थ यही है. एक विकृति जिसका उद्भव मनके साथ-साथ हुआ ।

 

मानवजातिका वह भाग, मानव चेतनाका वह मांग, जिसमें अतिमानसके साथ एकाकार होनेकी और अपनेको मुक्त करनेकी क्षमता है, वह पूर्णत: रूपान्तरित हो जायगा -- वह एक भावी सत्यकी ओर बढ़ रहा है जो अभी बाह्य रूपमें अभिव्यक्त नहीं हुआ है; वह भाग जो प्रकृतिके, पशुकी सरलता- के बिलकुल निकट है, प्रकृतिमें पुनः घुल-मिल जायगा और घनिष्ठ रूपसे आत्मसात् कर लिया जायगा । लेकिन मानव चेतनाका वह कलुषित भाग उन्मूलित हों जायगा जो अपने मनके गलत उपयोगके कारण विकृतिकी ओर ले जाता है ।

 

         इस तरहकी मानवता एक ऐसे निष्फल प्रयासका अंग है -- जिसका दमन होना चाहिये-जैसे दूसरी आदिम जातियां विश्वके इतिहास-क्रममें लुप्त हो गयीं ।

 

         प्राचीन कालके कुछ पैगम्बरोंको ऐसा भविष्य-सूचक अन्तर्दर्शन हुआ था, पर जैसा अकसर होता आया है, चीजों गड्डमड्ड हो गयीं, ओर उन्हें भविष्य- सूचक अन्तर्दर्शनके साथ-साथ अतिमानसिक जगत्का अन्तर्दर्शन नहीं हुआ जो मानवताके उस भागको उठाने आयेगा जो स्वीकार करता है और इस भौतिक जगत्को रूपान्तरित कर देगा । अतः, उन लोगोंको जो ऐसी अवस्थामें, मानवीय चेतनाके इस विकृत भागमें जन्मे है, आशा बंधानेके लिये उन्होंनें श्रद्धाद्वारा मुक्तिकी शिक्षा दी : जिन्हें, आडूमें भगवानकी यज्ञा हुतिपर श्रद्धा है उनका अपने-आप दूसरे जगत्में केवल श्रद्धाद्वारा उद्धार हों जायगा -- बिना समझे, बिना बुद्धिके । उन्होने अतिमानसिक जगत्- को नहीं देखा. और न ही आडमें अन्तर्लयनकी भगवानकी उदात्त 'आहुति' को देखा है जिसकी पराकाष्ठा होगी स्वयं जडमें भगवानकी पूर्ण अभिव्यक्ति ।

 

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